वैभव लक्ष्मी व्रत व कथा || Vaibhav Laxmi vrat katha
वैभव लक्ष्मी व्रत (सौभाग्य और समृद्धि देने वाला व्रत)
हिन्दू धर्म में वैभव लक्ष्मी की पूजा का विशेष महत्व माना गया है। इस व्रत में लक्ष्मी जी के वैभव लक्ष्मी स्वरूप की पूजा की जाती है। यह व्रत शुक्रवार के दिन रखा जाता है। इस व्रत को स्त्री तथा पुरुष दोनो रख सकते हैं। इस व्रत के प्रभाव से व्रत करने वाले की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। सुख-समृद्धि और सौभाग्य में वृद्धि होती है। आइए वैभव लक्ष्मी व्रत कथा तथा विधि जानते हैं।
वैभव लक्ष्मी व्रत में पूजा किस समय करना चाहिए
वैभव लक्ष्मी व्रत कथा
एक समय की बात है, एक शहर में बहुत लोग रहते थे। लेकिन वे सभी अपने-अपने कामों में व्यस्त रहते थे। किसी के पास किसी के लिए समय नहीं था। पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, दया-दान तथा परोपकार जैसे संस्कार कम हो गए थे। शहर में बुराइयां बढ़ रहीं थीं। शराब, जुआ, व्यभिचार, चोरी-डकैती आदि बुराइयाँ बढ. गई थीं। इसके बावजूद शहर में कुछ अच्छे और ंधार्मिक लोग भी रहते थे। इसी गांव में शीला भी अपने पति के साथ रहती थी। शीला बहुत ही धार्मिक प्रकृति की और संतोषी स्वभाव वाली स्त्री थी। उनका पति भी विवेकी और सुशील था। शीला और उसका पति कभी किसी की बुराई नहीं करते थे वे सदा प्रभु भजन में ही समय व्यतीत करतेे थे। शहर के लोग उनकी गृहस्थी तथा उनके व्यवहार से काफी प्रभावित थे। देखते ही देखते समय बदल गया। शीला का पति बुरे लोगों की संगत कर बैठा। अब वह जल्द से जल्द अमीर बनने के ख्वाब देखने लगा। जिससे वह गलत रास्ते पर चल पड़ा। वह शराब, जुआ, रेस, चरस आदि बुरी आदतों में भी फंस गया। दोस्तों के साथ उसे भी शराब की आदत हो गई। जिससे उसने अपना सब कुछ जुएं में गवां दिया।
मां वैभव लक्ष्मी ने दिया शीला को आशीर्वाद
शीला अपने पति के बर्ताव से बहुत दुःख थी, किंतु उसे मां वैभव लक्ष्मी पर पूरा भरोसा था। वह अपना अधिकांश समय पूजा-पाठ तथा भजन-कीर्तन में बिताने लगी। एक दिन दोपहर को अचानक उनके दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। जब शीला ने दरवाजा खोला तो उसने देखा कि दरवाजे पर एक मांजी खड़ी थी। उनके चेहरे पर आलौकिक तेज था। उनका चेहरा करुणा और प्यार से छलक रहा था। उनको देखते ही शीला के मन को अपार शांति मिल गई। शीला के रोम-रोम में आनंद छा गया। शीला उन मांजी को आदर के साथ घर के अन्दर ले आई। घर में बिठाने के लिए कुछ भी नहीं था। अतः शीला ने सकुचाकर एक फटी सी चादर बिछाई और सम्मानपूर्वक मांजी को उस पर बिठाया। मांजी बोलीं- क्यों शीला! तूने मुझे पहचाना नहीं? हर शुक्रवार को लक्ष्मीजी के मंदिर में भजन-कीर्तन के समय मैं भी वहां आती हूं। तुम बहुत दिनों से मंदिर में दिखाई नहीं दी इसलिए मैं तुमसे मिलने चली आई।
जब मां वैभवलक्ष्मी ने शीला को स्वयं बताई व्रत की विधि
मांजी के प्रेम भरे शब्दों को सुनकर शीला का हृदय पिघल गया। उसकी आंखों सेें आंसू बहने लगे और वह बिलख-बिलखकर रोने लगी। मांजी ने कहा- बेटी! सुख और दुःख तो धूप और छांव जैसे होते हैं। धैर्य रखो बेटी, तुम मुझे अपनी सारी परेशानियां बताओ। मांजी की प्रेम भरी बातों से शीला को काफी हिम्मत मिली और सुख की आस में उसने मांजी को अपनी सारी परेशानियां कह सुनाई। शीला की बात सुनकर मांजी ने कहा- ‘कर्म की गति न्यारी होती है, हर इंसान को अपने कर्म भुगतने ही पड़ते हैं। लेकिन अब तू चिंता मत कर। क्योंकि अब तू अपने कर्म भुगत चुकी है। अब तुम्हारे सुख के दिन आने वाले हैं। तू तो मां वैभव लक्ष्मीजी की भक्त है, और मां वैभव लक्ष्मीजी तो प्रेम और करुणा की अवतार हैं। वे अपने भक्तों पर हमेशा दया रखती हैं। इसलिए तू धैर्य रखकर मां लक्ष्मी जी का व्रत कर। इससे सब कुछ ठीक हो जाएगा।’ शीला के पूछने पर मांजी ने उसे व्रत की सारी विधि भी बता दी। मांजी ने कहा- ‘बेटी! मां लक्ष्मीजी का व्रत बहुत सरल है। उसे ‘वरदलक्ष्मी व्रत’ या ‘वैभव लक्ष्मी व्रत’ भी कहा जाता है। इस व्रत को करने वाले की सब मनोकामनाएं पूर्ण होती है। वह सुख-संपत्ति और यश प्राप्त करता है।’
शीला ने मां वैभव लक्ष्मीजी का व्रत शुरू किया
मांजीकी बात सुनकर शीला आनंदित हो गई। जब शीला ने व्रत का संकल्प करके आंखें खोली तो वहां कोई न था। वह अश्चर्यचकित हो गई कि, मांजी कहां गईं? लेकिन शीला को यह समझते देर न लगी कि वह मांजी कोई और नहीं वल्कि साक्षात लक्ष्मीजी ही थीं। अगले दिन शुक्रवार था। सुबह स्नान कर, स्वच्छ कपड़े पहन, शीला ने मांजी द्वारा बताई गई विधि से व्रत किया ।उसने स्वयं भी प्रसाद ग्रहण किया और अपने पति को भी खिलाया। प्रसाद खाते ही पति के स्वभाव में फर्क आने लगा। उस दिन उसने शीला को मारा नहीं, सताया भी नहीं। शीला को बहुत आनंद आया।उसके मन में ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ के लिए श्रद्धा और बढ़ गई।शीला ने पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से इक्कीस शुक्रवार तक ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ किया। इक्कीसवें शुक्रवार को मांजी के कहे अनुसार उद्यापन कर के सात स्त्रियों को ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ की सात पुस्तकें उपहार में दीं। फिर माता रानी के ‘धनलक्ष्मी स्वरूप’ का स्मरण करके मन ही मन प्रार्थना करने लगीं- ‘हे मां धनलक्ष्मी! मैंने आपका ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ करने की मन्नत मानी थी, वह व्रत आज पूर्ण हो गया है। हे मां! मेरी हर परेशानी दूर करो। हम सबका कल्याण करना। जिसे संतान न हो, उसे संतान देना। सौभाग्यवती स्त्री को अखंड सौभाग्य देना। कुंवारी लड़की को मनभावन पति देना। जो आपका यह चमत्कारी वैभव लक्ष्मी व्रत करें, उसकी सभी विपत्तियां दूर करना। सभी को सुखी रखना। हे मां आपकी महिमा अपरंपार है। यह कहकर लक्ष्मीजी के ‘धनलक्ष्मी स्वरूप’ को प्रणाम किया। व्रत के प्रभाव से शीला का पति बुरी संगत से दूर हो गया और कड़ी मेहनत करके व्यवसाय करने लगा। उसने शीला के गिरवी रखे हुए गहने छुड़ा लिए। घर में धन की बाढ़ सी आ गई। घर में पहले जैसी सुख-शांति आ गई। ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ का प्रभाव देखकर मोहल्ले की सभी स्त्रियां विधिपूर्वक ‘वैभवलक्ष्मी व्रत करने लगीं।
वैभव लक्ष्मी व्रत की उद्यापन विधि
वैभव लक्ष्मी का व्रत सात, ग्यारह या इक्कीस, (जितने भी शुक्रवारों की मन्नत मांगी हो, उतने) शुक्रवार तक पूरी श्रद्धा तथा भावना के साथ करना चाहिए। आखिरी शुक्रवार को शास्त्रीय विधि के अनुसार इसका उद्यापन करना चाहिए। उद्यापन के दिन प्रसाद के लिए खीर बनानी चाहिए। जैसे हर शुक्रवार को हम वैभव लक्ष्मी व्रत पूजन करते हैं, वैसे ही करना चाहिए। पूजन के बाद मां के सामने एक श्रीफल फोड़ें फिर कम से कम सात कुंआरी कन्याओं या सौभाग्यशाली स्त्रियों को कुमकुम का तिलक लगाकर मां वैभवलक्ष्मी व्रत कथा की एक-एक पुस्तक भेंट करनी चाहिए और सबको खीर का प्रसाद देना चाहिए। इसके बाद मां लक्ष्मीजी को श्रद्धा पूर्वक प्रणाम करना चाहिए। फिर माताजी के ‘धनलक्ष्मी स्वरूप’ की छबि को स्मरण करके श्रद्धा भाव से मन ही मन प्रार्थना करें- ‘हे मां धनलक्ष्मी! मैंने आपका ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ करने की मन्नत मानी थी, वह व्रत आज पूर्ण कर लिया है। हे मां हमारी (जो मनोकामना हो वह बोले) मनोकामना पूर्ण करें। हमारी हर विपत्ति दूर करो। हम सबका कल्याण करो। जिसे संतान न हो, उसे संतान देना। सौभाग्यवती स्त्री का सौभाग्य अखंड रखना। कुंआरी लड़की को मनभावन पति देना। जो आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत करे, उसकी सब विपत्ति दूर करना। सभी को सुखी रखना। हे मां आपकी महिमा अपरंपार है। आपकी जय हो! ऐसा बोलकर लक्ष्मीजी के ‘धनलक्ष्मी स्वरूप’ की छबि को प्रणाम करें।
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